श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर महाराज के शब्दों में, “अपने भीतर झांको, दूसरों की कमजोरियों का निरिक्षण करने की अपेक्षा स्वयं को सुधारो ।
पर-निंदा एवं आत्म-संशोधन
दोष देखने की लत
दूसरों में दोष देखना बद्ध जीव की स्वाभाविक प्रकृति है । ये हमें किसी से सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती । वास्तव में कुछ लोगों को इसकी बुरी लत लगी होती है और वे इसमें वृकृत आनंद की अनुभूति करते हैं । इसे रामचन्द्र पुरी संलक्षण कह सकते हैं । रामचन्द्र पुरी, श्रीमन महाप्रभु के समकालीन संत थे । उनमे दोष निकालने की तीव्र इच्छा बनी रहती थी । किसी में दोष न होने पर भी वे दोष ढूंढ निकालने में निपुण थे और उसमे ही आनंद अनुभव करते थे । ऐसा कहा जा सकता है कि दोष निकालना ही उनका धन-प्राण था।
दोष निकालने की लत ऐसी है कि जब तक दिन भर में किसी के दोष न निकाल लें हृदय में बेचैनी रहती है । समाचार, टीवी, बच्चों के कार्टून सभी में किसी न किसी को नीचा दिखाया जा रहा होता है । नीचा दिखाना और किसी का उपहास उड़ाना आजकल साधारण सी बात है और आपकी बुद्धिमानी का प्रतीक है ।
इस से किस प्रकार का आनंद प्राप्त होता है ? ये वह आनंद है, हम किसी से बेहतर है जब हम उसे नीचा दिखाकर स्वयं को ऊँचा अनुभव करते हैं । भगवद-गीता में इस आनंद को तामसिक बताया गया है । और तामसिक आनंद प्रारम्भ में सुखदायी प्रतीत होता है परन्तु अंततः दुःख का कारण बनता है । दोष निकालना, दोनों, बोलने तथा सुनने वाले के हृदय एवं मन में कड़वाहट और विष घोल देता है ।
श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर महाराज बताते हैं कि, दूसरों में दोष देखने से कोई लाभ नहीं होता है । हमें स्वयं के दोष देखने चाहिए और दूसरों की कमियों का निरिक्षण करने के लिए उत्सुक नहीं होना चाहिए ।
हम दूसरों में दोष इसलिए देखते हैं क्योंकि हम अपनी कमियों को अनदेखा करना चाहते हैं । इसके अलावा हम अपने मत को सही ठहराने के लिए या किसी से प्रतिशोध लेने के लिए भी नीचा दिखाते हैं ।
प्रायः कुछ लोगों को उनके दोष निकालने वाले रोग के कारणों का पता भी नहीं होता । जैसे एक भक्त ने जब यह देखा की वह इस रोग से पीड़ित है तो उसने कारण जानने का प्रयास किया तब उसने यह पाया कि जब वह किसी से कोई निकटता नहीं चाहता इसलिए वह सबमें दोष देखता है । पता चलने पर उसने इस से छुटकारा पाने के प्रयास किये और अब वह इस रोग से मुक्त है ।
दोष निकालना, स्वयं की एक झूठी छवि दूसरों के सामने प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी होता है । जब हम दूसरों के लिए कुछ कर नहीं पाते तो उनकी गलतियां बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं और यह दर्शाते हैं कि वास्तव में मुझे तुम्हारी चिंता है परन्तु तुमने यह गलती कर दी इसलिए मैंने तुम्हारी कोई सहायता नहीं की । इस से हम अपनी एक अच्छी दयालु और मित्रवत छवि बनाकर रखना चाहते हैं ।
दूसरों में दोष देखने के समय हमें क्या करना चाहिए । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती कहते हैं, “जब दूसरों के दोष आपको भटकायें या भ्रमित करें तो धैर्यपूर्वक आत्मविश्लेषण करें – स्वयं में दोष ढूंढें । यह जानिए की कोई दूसरा आपको क्षति नहीं पहुंचा सकता जब तक आप स्वयं को क्षति नहीं पहुँचाना चाहते ।”
यही कुंजी है – स्वयं में दोष ढुंढ़ो । निःसंदेह यदि आप रामचन्द्र पुरी के समान हैं तो दूसरों के दोषों से आप इतने आच्छादित रहेंगे कि स्वयं के दोष आपको दिखेंगे ही नहीं ।
दूसरों के दोष से भ्रमित होना
दूसरों के दोष हमें कैसे भटकाते या भ्रमित करते हैं ?
हम दूसरों के दोषों को यह अनुमति प्रदान करते हैं कि वे हमें कृष्ण चिंतन से विचलित कर दे । यह ध्यान देने योग्य है, वास्तव में अपराध यानि “आराधना रहित”।
एक अन्य प्रकार से हम दिग्भ्रमित होते है, प्रायः दूसरों के दोषों का आश्रय लेकर हम स्वयं के दोषों को छुपाने का प्रयास करते हैं । यह हम बच्चों के खेल में अक्सर देखते हैं जब वे कोई गलती करते हैं तो कहते हैं “उसने भी ऐसा किया था” । हम भी यही करते हैं । दूसरे के दोषों को उजागर करके अपने दुर्व्यहार को तर्कसम्मति से सही ठहराते हैं । तथापि निंदा करना या दोष निकलने का भी कर्मफल होता है । जिन दोषों को हम दूसरों में होने का ध्यान लगाते हैं वही दोष हमारे अंदर भी पनपने लगते हैं।
दूसरों के दोष क्यों इतने सुस्पष्ट दिखते हैं ?
श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर बताते हैं कि, मैं स्वयं दोषों से इतना पूर्ण हूँ कि मुझे दूसरों में भी केवल दोष ही दिखते हैं । अन्य शब्दों में अनजाने में हमें स्वयं के दोष ही दूसरों में दिखते हैं । यह तो ऐसा हो गया कि “छलनी बोले सुई से, तेरे पेट में छेद” । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि दूसरों में दोष देखना एक प्रकार से अपने दोषों को दूसरों पर थोपने के समान है।
दोष देखना कितना हानिकारक है ?
क्या दोष देखना या निंदा करना वास्तव में हमारे आध्यात्मिक जीवन के लिए हानिकारक है ? श्रील प्रभुपाद इसे एक पापकृत्य बताते हैं । “जो अवैध-संग, दोष अन्वेषण या अनुचित हिंसा जैसे पाप-कृत्यों में लगे हैं, उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान या बोध कभी प्राप्त नहीं हो सकता । पाप कृत्य अज्ञान के अंधकार और गहन कर देता है तथा पुण्यकृत्य हमारे जीवन को दिव्य ज्ञान रूपी ज्योति से उज्जवल कर देते हैं ।
श्रील प्रभुपाद यहाँ पर दोष-अन्वेषण को ठीक अवैध-संग और माँसाहार के सदृश अंकित कर रहे हैं । ऐसा कई बार देखा जाता है कि जो भक्त दूसरे भक्तों की बहुत अधिक आलोचना करते हैं वे जल्द ही भक्ति पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं ।
अपने अंदर झांकिए
अगली बार जब भी आप किसी में दोष देखें तो तुरंत उस वाक्य में उसके नाम की जगह अपना नाम लगाकर देखें । यह आपको वास्तविक्ता का स्पष्ट बोध करा देगा और इस से आपको “आत्म-संशोधन” में सहायता मिलेगी ।
अभ्यास
आप मन में यह नोट करें कि आप प्रायः किन लोगों के (भक्त और अभक्त, दोनों) दोषों को देख रहे है और क्यों । आप प्रयत्न कीजिये की एक दिन, एक सप्ताह या एक महीने तक किसी के निंदा के शब्द नहीं कहेंगे । लक्ष्य है, इस दुष्प्रवृत्ति से छुटकारा पाना । ऐसा कहा जाता है कि जो भी हम ९० दिनों तक लगातार करते हैं वह हमारी प्रवृत्ति (आदत) बन जाता है । यदि आप किसी की निंदा किये बिना नब्बे दिन बिता लेते हैं तो समझिए आप निंदा करना या दोष देखने की इस प्रवृत्ति से छूट गए । तब आप उन शुद्ध भक्तों का संग करना चाहेंगे जो न दूसरों के प्रति कुछ न अनुचित बोलेंगे न सुनना चाहेंगे ।
यदि आपको लगता है कि आप भी इस रोग से ग्रस्त हैं तो इस ९० दिवसीय अभ्यास का परिक्षण कीजिये ।
साभार : महात्मा दास
अनुवादक : राधा रसिकराज दास
Thank you prabhu ji
very essential thing for Bhakti