
श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा गुंडिचा मंदिर मार्जन
गुंडिचा मंदिर, ओडिशा के पुरी नामक स्थान पर स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर से दो किलोमीटर की दूरीे पर उत्तर पूर्व दिशा में ग्रैंड रोड के अंत में स्थित है। गुंडिचा मंदिर को जगन्नाथ स्वामी का “जन्मस्थान” भी कहा जाता है, क्योंकी यहाँ “महावेदी” नामक एक विशेष मंच पर दिव्य शिल्पकार विश्वकर्मा ने राजा इन्द्रध्युम्न की इच्छानुसार जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के विग्रहों को दारु ब्रम्ह से प्रकट किया। यह मंदिर राजा इन्द्रध्युम्न की पत्नी, गुंडिचा महारानी के नाम पर है। इस क्षेत्र में राजा इन्द्रध्युम्न ने एक हजार अश्वमेध यज्ञ किया था ।
गुंडिचा मंदिर जहां स्थित है उस स्थान कों “सुंदराचल” कहा जाता है। सुंदराचल, की तुलना वृन्दावन से की गयी है, और नीलाचल जहाँ श्री जगन्नाथ रहते हैं वह द्वारका माना जाता है। भक्त जन ब्रजवासिओं के भाव में रथयात्रा के समय प्रभु जगन्नाथ से लौटने की प्रार्थना करते हैं इसलिए प्रभु उन भक्तों के साथ वृन्दावन यानि गुंडिचा आते हैं॥
पांच सौ वर्ष पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु ने रथयात्रा से एक दिन पहले यह सिखाया कि गुंडिचा मंदिर मार्जन की महिमा क्या है। हमें किस मनोवृत्ति से गुंडिचा मार्जन करना चाहिए एवं यह हमें कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेमभक्ति में अग्रसर होने के लिए किस प्रकार लाभकारी है ।
निम्नलिखित लेख श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर द्वारा गुंडिचा मंदिर मार्जन के पीछे के रहस्य को उजागर करता है।
अपनी लीलाओं से श्री चैतन्य महाप्रभु यह सिखा रहे हैं कि अगर कोई भाग्यवान जीव श्री भगवान को अपने हृदय में बैठाना चाहता है तो सर्वप्रथम उसे अपने हृदय से सभी मलिनताओं को निकालना होगा। भक्ति के लिए हृदय को स्वच्छ, शांतिमय एवं दोषरहित बनाना अनिवार्य है । यदि घास,रेत या धूल रूपी – अनर्थ – हमारे ह्रदय में रह जाते हैं तो हम श्री भगवान को वहां नहीं बैठा सकते ।
दूषित हृदय अर्थात अन्याभिलाषा (भगवान की सेवा के अतिरिक्त अन्य इच्छाएँ), कर्म (सांसारिक कार्य), ज्ञान (मनगढंत, निर्विशेष आदि ज्ञान) एवं योग इत्यादि से पूर्ण हृदय।
श्रील रूप गोस्वामी कहते है:
अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञान कर्माद्यनावृतम्|
अनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा||
(भक्तिरसामृत सिंधु १.१.११ )
जहाँ भी भक्ति से असंबंधित इच्छाऐं, मनगढंत निर्विशेष आदि ज्ञान, सांसारिक कर्म, योग इत्यादि या भक्ति के लिए प्रतिकूल मानसिकता उपस्थित होगी वहां जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति या शुद्ध भक्ति नहीं हो सकती । और जहाँ शुद्ध भक्ति नहीं होगी वहां कृष्ण प्रकट नहीं होंगे ।
श्री गौरसुन्दर ने पहले कई दिनों से जमा धूल, रेत, घास-फूस इत्यादि के ढेरों को साफ़ किया। फिर झाड़ू एवं पानी से सम्पूर्ण मंदिर को दूसरी बार साफ़ किया। इसके बाद वे अपने अंगवस्त्र से मंदिर के कोने-कोने को साफ करने लगे ताकि कहीं लेश-मात्र धब्बा भी न रह जाये।
व्यापक घिसने और सफाई के पश्चात मंदिर न केवल धूल रहित हो गया अपितु वह शीतल भी हो गया । अर्थात इसी प्रकार साधक का हृदय न केवल अनर्थों से मुक्त होता है अपितु त्रितापों (तीन प्रकार के ताप (क्लेश): आध्यात्मिक: शरीर एवं मन द्वारा, अधिदैविक: देवताओं द्वारा, अधिभौतिक: अन्य जीवों द्वारा) से युक्त इस दावाग्नि रुपी भौतिक संसार में शीतलता का भी अनुभव करता है।
वास्तव में जब साधक के मन से भोग एवं मुक्ति की इच्छाएं, भौतिक संसार में सुखी रहने के लिए उग्र-प्रयत्न, मनगढंत निर्विशेष ज्ञान एवं योग इत्यादि दूर हो जाते हैं और जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति, शुद्ध भक्ति प्रकट होती है तो वह शांति एवं शीतलता का आभास करता है ।
कुछ साधक अज्ञानवश यह सोचते हैं कि अब तो आत्म-इन्द्रियतृप्ति को त्याग चुके हैं परन्तु उन्हें एक बात समझ नहीं आती कि हृदय के एक कोने में मुक्ति की इच्छा अभी भी बनी हुयी है। मुख्यतः निर्विशेषवादियो की “सायुज्य मुक्ति” कि इच्छा । महाप्रभु ने अपने अंगवस्त्र से रगड़ के जो दाग हटाये वे इस मुक्ति व अन्य चार प्रकार (सालोक्य, सायुज्य, सामीप्य एवं सार्ष्ठि) की मुक्तियों को दर्शाती है।
इस तरह, सभी जीवों के कल्याण हेतु एक जीव की मानसिकता को दर्शाते हुए, श्री गौरसुन्दर एक – गुरु के रूप में, व्यक्तिगत रूप से सीखाते हैं कि कैसे बड़े उत्साह के साथ एक साधक को चाहिए कि वो जोर से श्री कृष्ण का नाम लेते हुए अपने हृदय को स्वच्छ करे जिसमें श्री कृष्ण के लिए उपयुक्त स्थान बने, जहाँ वह सिर्फ कृष्ण की संतुष्टि के लिए कार्य कर सके।
श्रीमन महाप्रभु , हर भक्त के निकट आकर उनके हाथ पकड़ते और सिखाते कि कैसे मंदिर को साफ करना है। स्वयं श्री राधा-कृष्ण के युगल अवतार, चैतन्य महाप्रभु उन भक्तों की प्रशंसा करते जो उनके मानकों पर खरे उतरते और जिनकी सेवा से वे प्रसन्न नहीं होते उन भक्तों को कृपापूर्वक सजा देते। वे भक्त जो उनके अनुरूप सफाई कर रहे थे उन्हें अन्यों को सिखाने का आदेश भी देते। इस तरह वे यह दर्शाते हैं कि जो भक्त उनकी शिक्षाओं का यथारूप पालन करते हैं वे आचार्य बनकर दूसरों को भक्ति में संलग्न करें। यह उनकी समस्त जीवों के प्रति परम उदारता को दर्शाता है।
तुमि भाल करियाछ, शिखाह अन्येरे ।
एई-मत भाल कर्म सेहो येन करे ॥ (चै च मध्य १२. ११७ )
श्री महाप्रभु कहते, “तुमने बहुत अच्छा किया है, अब दूसरों को भी सिखाओ ताकि वे भी समान रूप से कर सकें।
जो साधक अभी तक अनर्थों से निवृत्त नहीं हो पाए हैं उनको श्रीमन महाप्रभु ने सिखाया कि जितना आपका हृदय स्वच्छ होगा उतना ही श्री हरि को विराजमान करने के लिए उपयुक्त होगा,
और इसका सरल उपाय है, हरि-गुरु-वैष्णव की सेवा का शांतिपूर्वक अभ्यास।