श्री कृष्ण कथामृत बिंदु अंक १६ का अंश
हरि-भक्ति विलास २.१४७, में श्रील सनातन गोस्वामी सम्मोहन तंत्र से उद्धृत करते हैं:
गोपयेद देवताम इष्टम्, गोपयेद गुरुम आत्मनः ।
गोपयेच च निज मन्त्रं, गोपयेन निज-मालिकाम ॥
हमें अपने इष्टदेव को गुप्त रखना चाहिए, हमें अपने गुरु को गुप्त रखना चाहिए, हमें अपने मन्त्र को गुप्त रखना चाहिए और हमें अपनी जप-माला को गुप्त रखना चाहिए।
बुद्धिमान लोग अपनी मूल्यवान वस्तुओं को किसी गोपनीय स्थान पर रखते हैं । उसी प्रकार एक बुद्धिमान साधक अपने गुरु का प्रचार नहीं करता या करती और नाही वे स्वयं को अपने गुरु के शिष्य के रूप में प्रचार-प्रसार करते हैं । वे स्वयं को इतने अधम, पतित और अयोग्य समझते हैं कि शिष्य नहीं कहलाना चाहते, गंभीर निष्ठावान भक्त, उनके गुरु कौन हैं, इसका प्रचार नहीं करते ।
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी भी एक भक्त एवं शिष्य की भावना की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :
जगाई मधाई हइते मुंञ् से पापिष्ठ ।
पुरिषेर कीट हइते मुंञ् से लघिष्ठ ॥
मैं जगाई एवं मधाई से भी अधिक पापी और विष्ठा में पड़े हुए कीट से भी अधम हूँ । चै. च. ५.२०५)
इसी प्रकार श्रील भक्ति-विनोद ठाकुर कहते हैं:
गर्हित आचारे रहिल-आम माजी, न करिनु साधू-संग।
लए साधु-वेश आने उपदेशी, ए बड़ मायार रंग ॥
घृणित कार्यों में अवशोषित रहने के कारण मैंने कभी साधुओं का संग नहीं किया । अब मैं एक साधू का वेश बनाकर दूसरों को उपदेश देने का ढोंग करता हूँ । यह माया का बड़ा परिहास है। ( शरणागति ७.३)
यद्यपि श्रील भक्ति-विनोद ठाकुर को उनके शिक्षा-गुरु श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी सहित, कई उन्नत वैष्णव भक्तों का संग प्राप्त था, परन्तु उन्होंने इसका अभिमानी-दिखावा नहीं किया ।
इसकी अपेक्षा उन्होंने स्वयं को कहा कि वे साधु-संग नहीं ले रहे हैं… न करिनु साधू-संग।
श्रील भक्ति-विनोद ठाकुर व्याख्या करते हैं कि शिष्य दो प्रकार के होते हैं: अंतर्मुखी एवं बहिर्मुखी ।
अंतर्मुखी – वे होते हैं जो आत्मविश्लेषण करते हैं और बहिर्मुखी – वे जो बाहरी दिखावे में लगे रहते हैं ।
अंतर्मुखी शिष्य अपने गुरु को आनंद प्रदान करने के इच्छुक होते हैं । उनका ध्यान एकमात्र गुरु के आदेशों का पालन करने में रहता है। अंतर्मुखी शिष्य, “गोपयेद गुरुम आत्मनः” का पालन करते हैं । वे अपने और गुरु के मध्य सम्बन्ध को गोपनीय रखते हैं । अंतर्मुखी शिष्य, स्वयं को अपने गुरु का शिष्य के रूप में प्रसारित करने में रूचि नहीं लेता । उसका ध्यान मात्र इसी विचार पर केंद्रित रहता है की वह क्या करे जिससे गुरु प्रसन्न हो जाएँ । अंतर्मुखी शिष्य, अनर्थ-मुक्त-अवस्था में रहता है । वह अपने गुरु का “सेव्य-दर्शन” के रूप में अवलोकन करता है और यह निश्चित करता है कि गुरु की सेवा हो और वे उस सेवा से प्रसन्न हों।
बहिर्मुखी शिष्य वे होते हैं जो “गोपयेद गुरुम आत्मनः” के विपरीत चलते हैं । वे अपने गुरु का प्रचार करने में और स्वयं को एक अंतरंग शिष्य के रूप में प्रस्तुत करने में व्यस्त रहते हैं । ऐसे शिष्य गुरु-गिरी भी कहलाते हैं यानि वे जो गुरु और उनसे सम्बन्ध के दिखावे का व्यवसाय करते हैं । वे अपने गुरु के गूढ़ प्रयोजन को नहीं समझते । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ऐसे व्यक्तियों की गतिविधियों को ऊपरी दिखावा करने वाले “धर्मध्वजी” कहते हैं जो धर्म (भक्ति) का ढोंग या आडम्बर करते हैं ।
साभार : www.gopaljiu.org
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neeraj
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