श्रील रूप गोस्वामी श्री उपदेशामृत में भक्तों के बीच प्रेममय सम्बन्ध विकसित करने के छः तरीकों का वर्णन करते हैं: उपहार देना, उपहार स्वीकार करना, अपने मन की बातों को विश्वशनीय भक्तों के साथ साझा करना, दूसरे भक्तों के मन की बात सुनना, प्रसाद वितरित करना और स्वयं स्वीकार करना ।
आचार्य बताते हैं कि शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण-प्रसाद को भगवान श्री कृष्ण से अभिन्न समझते हैं । अपने समक्ष प्रसाद को देख कर वे इतने भाव-विभोर हो जाते थे कि खाने का कार्य मात्र औपचारिकता ही था ।


प्रसाद स्वीकारने की तुलना किसी होटल में खाना खाने से नहीं की जा सकती । इसी तरह प्रसाद वितरित करने वाला भक्त यह किसी नौकरी या कार्यभार के रूप में सोचकर वितरण नहीं करता । श्री चैतन्य महाप्रभु किस प्रकार प्रसाद वितरण करते थे यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा है । भक्तों के संग प्रसाद ग्रहण करना और वितरण करना भगवान को अत्यंत प्रिय है । भक्त का भाव सदैव यही रहता है कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ कि भगवान के भक्त मेरे हाथों से प्रसाद स्वीकार कर रहे हैं ।
केवल इसी चेतना में प्रसाद वितरित करना सीखकर हम आदर्श भक्त बन सकते हैं । ऐसे वातावरण में प्रसाद का स्वाद उसके पकाने पर नहीं अपितु परोसने पर निर्भर करता है ।
श्री चैतन्य महाप्रभु बताते हैं कि यदि किसी राजकुमार के सामने छप्पन भाग रखकर उसका अपमान कर दिया जाये तो वह इतना दुखी हो जायेगा की वह छप्पन भोग भी उसे अच्छे नहीं लगेंगे ।
इसलिए यदि आनंद, उत्साह, नम्रता और स्वछता पूर्वक, अन्यों की प्रसन्नता हेतु प्रसाद वितरित किया जाये तो निश्चित ही वितरण का अद्भुत अनुभव होगा ।
श्रील प्रभुपाद द्वारा लिखे गए एक पत्र में वे प्रसाद वितरण के कुछ नियमों का उल्लेख करते हैं:


हमें कभी भी श्रीकृष्ण प्रसाद फेंकना नहीं चाहिए । जितना हमें चाहिए उतना ही पकाना चाहिए और व्यक्ति की आवश्यक्तानुसार उसे देना चाहिए । यह वैदिक पद्धति है कि लोग अपनी थाली लेकर पंगत में बैठें और प्रसाद वितरक तब तक थोड़ा थोड़ा परोसते रहे जब तक लोग ना न बोलें । सेवक को निरंतर प्रसाद लेकर घूमते रहना चाहिए और जिसे भी आवश्यकता हो वह उसे परोसे । इस प्रकार प्रसाद व्यर्थ भी नहीं जायेगा और सब संतुष्ट भी हो जायेंगे । (कीर्तिराज को पत्र, २७ नवंबर, १९७१)
१) सभी भक्तों को पंगत में बैठाकर, योग्य भक्त ही प्रसाद परोसें ।
२) सेवक स्वच्छ, शांत, संतुष्ट होने चाहिए । यदि आवश्यक हो तो सेवा के पूर्व ही प्रसाद ग्रहण कर लें । सेवा के समय अशांत, हड़बड़ी या अधिक बाते करने से बचें ।
३) जितना आवश्यक हो उतना ही परोसना चाहिए, जिससे प्रसाद व्यर्थ न हो ।
४) वरिष्ठ भक्तों, वृद्धों और बच्चों को पहले परोसना चाहिए ।
५) पंगत में बैठने के पहले प्रत्येक थाली में नमक (और निम्बू) रख दें ।
६) सबसे पहले पानी दें ।
७) इस क्रम में प्रसाद परोसें :
क) सबसे पहले कड़वे व्यंजन जैसे करेला इत्यादि ।
ख) सब्जियां और शाक
ग) रोटी और चावल (थाली में सदैव रहने ही चाहिए)
घ) तले हुए व्यंजन और दाल
ङ ) मिठाइयां
८) पंगत में तब तक घूमते रहना चाहिए जब तक सब संतुष्ट न हो जाएँ । कंजूसी नहीं करनी चाहिए और यह सोचकर भी कम नहीं बांटना चाहिए कि बाद में मुझे लेना है ।
९) बाँटने वाले चम्मचों को थाली से स्पर्श नहीं कराना चाहिए । ऐसा करने से चम्मच जूठा हो जाता है , अगर गलती से चम्मच किसी थाली से छू जाये तो धोकर दोबारा परोसना चाहिए ।
१०) कभी भी प्रसाद पर पैर न रखें और n ही उसे लांघें ।
११) प्रसाद वितरित करने वाले बर्तनों को फर्श पर न घसीटें । और भी अनावश्यक शोर से बचें ।
१२) जब सब प्रसाद ले चुके हों तो उस स्थान को तुरंत साफ़ कर दें ।
प्रसाद स्वीकार करने के नियम:


जब कोई हमें प्रसाद देता है तो भक्ति में प्रगति करने के लिए हमें उसे भगवान की कृपा समझकर अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिए ।
१) स्मरण करें की कृष्ण-प्रसाद, भगवान श्री कृष्ण से अभिन्न है । (शरीर अविद्याजाल प्रार्थना गायें)
२) खाने-पीने के लिए सदैव दाहिने हाथ का प्रयोग करें ।
३) ध्यान करें किस प्रकार भगवान ने इस प्रसाद को चखा होगा और अब यह कृपा के रूप में हमें मिला है । उनकी प्रसाद लीलाओं का भी स्मरण कर सकते हैं ।
४) प्रसाद ग्रहण करते समय व्यर्थ बाते न करें । भगवान का गुणगान किया जा सकता है ।
५) लालच में आकर प्रसाद न लें और न हि व्यर्थ फेंकें ।
६) प्रसाद ग्रहण करने से पहले और बाद में हाथ,पैर और मुँह धोएं ।
७ ) श्रील प्रभुपाद कहते हैं: एक चौथाई पेट पानी से, आधा पेट भोजन से और एक चौथाई हवा से भरना चाहिए । अत्याहार मत करो ।
हरे कृष्ण प्रभुजी
आप के समान सेवा अौर कोइ नहि.