६ नवंबर, १९७३
श्रीमती इंदिरा गांधी,
प्रधानमंत्री, भारत
महामहिम श्रीमती इंदिरा गांधी देवी:
मेरे शिष्य गुरुदास अधिकारी एवं उनकी पत्नी श्रीमती यमुना देवी के साथ आपकी भेंट करने की अनुमति प्रदान करने के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ । कदाचित आप हमारे विश्वव्यापी कृष्ण भावनामृत आंदोलन से अवगत होंगी । हम न केवल नृत्य एवं कीर्तन से इस भक्ति पंथ का प्रचार कर रहे हैं परन्तु विशेष रूप से भगवद-गीता एवं श्रीमद् भागवतम को सम्पूर्ण विश्व में अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत कर रहे हैं ।
आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि हमारी पुस्तकों को विश्व के हर भाग में बहुत अच्छे से स्वीकार किया जा रहा है और अभी हाल ही में लंदन से जानकारी मिली है कि मात्र दो महीनों में हमने भगवद-गीता की ३०,००० प्रतियाँ बेचीं हैं ।
मैं विनम्र भेंट के रूप में अपनी पुस्तक, भगवद-गीता यथारूप की एक प्रति भेज रहा हूँ । आशा है कि आप अपने सुविधाजनक खाली समय में इस पुस्तक को एक नज़र देखेंगी, हो सके तो कम से कम प्रारंभिक सन्देश, भूमिका, परिचय और प्रस्तावना पढ़कर आपको इस पुस्तक के महत्त्व का अंदाजा हो जायेगा ।
हमें यह लगता है, परम पुरुषोत्तम भगवान द्वारा कही गयी, भगवद-गीता यथारूप मानव समाज की सभी सामाजिक,राजनितिक, धार्मिक, वैत्तिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं का समाधान कर सकती है । यह हर प्रकार की अपूर्णताओं जैसे, गलती करना, भ्रमित होना, छल करना और इन्द्रियों के दोषों से परे है ।
हम अपने विनम्र तरीके से इस भगवद-गीता के पंथ को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करने का प्रयास कर रहे हैं । मेरे अमेरिकी और यूरोपियन शिष्य, जैसे दो आपसे मिलने गए है, इस कार्य में मेरी सहायता कर रहे हैं । अंततः भगवद-गीता सर्वोच्च सांस्कृतिक ज्ञान है और निःसंदेह धर्म भी इस से जुड़ा है, परन्तु यह कोई कट्टर या भावुक धर्म नहीं है । यह शुद्ध विज्ञान, दर्शन और तर्क पर आधारित है ।
मेरी अभिलाषा है कि हमारी भारतीय सरकार इस सांस्कृतिक आंदोलन को स्वीकार करने में गौरान्वित होगी जिससे सम्पूर्ण विश्व का लाभ होगा और भारत भी महिमामंडित होगा ।
आशा है भगवान कृष्ण आपको मेरी विनम्र प्रस्तुति समझने का सही विवेक प्रदान करेंगे और यह सुनकर अति प्रसन्नता होगी कि आपने, बिना किसी अनधिकृत टीका के प्रस्तुत की गयी हमारी भगवद-गीता यथारूप का आस्वादन किया ।
स्वयं से मिलने का अवसर देने के लिए आपका एक बार फिर से धन्यवाद ।
सदैव आपका शुभचिंतक,
ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी