भक्ति, संस्कृत के मूल शब्द “भज” से उद्धृत है – जिसका अर्थ है प्रेममयी सेवा। संस्कृत में योग का अर्थ है “जुड़ना”।
भक्ति योग का अर्थ हुआ परमेश्वर से प्रेममयी सेवा द्वारा जुड़ना।
हम सभी में प्रेम और भक्ति है, परन्तु सुप्त अवस्था में। और इस अवस्था से निकल कर परम पुरुषोत्तम भगवन की सेवा में लगने का एक सरल उपाय है। यह उपाय स्वयं भगवान श्री कृष्ण द्वारा ही भगवद-गीता में बताया गया है। और भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस उपाय को और सरल एवं सुखद बना दिया है । इस्कॉन के संस्थापकाचार्य, श्रील प्रभुपाद ने इस प्रक्रिया को सम्पूर्ण विश्व में विख्यात कर दिया।
इस सुप्तावस्था से पुनः प्रेम जागृत करने की प्रक्रिया न केवल शुद्धिकरण ही करती है अपितु आत्मसंतुष्टि भी प्रदान करती है। जप या कीर्तन, नृत्य और प्रसाद सेवन ये तीन क्रियाएँ इस प्रक्रिया के मुख्य अंग हैं ।
भगवान के शुद्ध नामों का जप या कीर्तन नित्य – “हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ॥” द्वारा किया जा सकता है । जप – सामान्यतया जपमाला पर निर्धारित संख्या में किया जाता है, जबकि कीर्तन – कुछ लोगों के संग एकसाथ मिलकर वाद्य-यंत्रो को बजाकर किया जाता है। हरिनाम जप एवं कीर्तन से हम, अपने दर्पण रूपी चेतना पर जमी कई जन्मों की धूल को साफ़ कर सकते हैं ।
नृत्य भी हमारे प्रेममयी सेवा को प्राप्त करने एवं शुद्धिकरण का एक प्रमुख अंग है। यह बहुत ही अनुग्रहित भाव में भगवान के समक्ष किया जाता है। नृत्य हमारे सम्पूर्ण शरीर को भगवान के गुणगान में लगाता है।
प्रसाद-सेवन अर्थात भोजन जो सिर्फ भगवान के लिए पकाया और प्रेमपूर्वक अर्पित गया, उसे पाना। ऐसे भोजन को “प्रसाद” कहा जाता है और यह कर्म-रहित होने के कारण हमें जन्म-मृत्यु के पुनरावृत्त चक्र से बाहर निकालता है।
इन सब के अतिरिक्त सामान्य जीवन में भी हम कुछ कार्य करते हैं । परन्तु अगर इस भावना से कार्य किये जाएँ कि वे सब श्री भगवान की प्रसन्नता के लिए हैं एवं उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्त होगा वो उनको ही अर्पित करें तो यह भी भक्ति-योग ही है ।
येन के प्रकारेण, मनः कृष्ण निवेशयेत् ॥ यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उद्देश्य है कि सामान्य जन को शास्त्रोक्त विधियों का पालन करते हुए भक्ति-पथ पर लाएं एवं श्री भगवान की सेवा करने का सुअवसर प्रदान करें।